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घरेलू हिंसा के मामले भले ही पुलिस की डायरी में कम दर्ज होते हों लेकिन महिलाओं पर हो रहे अत्याचार कम नहीं हुए हैं। अव्वल तो ये कि अधिकतर महिलाएं स्वयं पुलिस के पास मामले लेकर जाना नहीं चाहती हैं। पुलिस को शिकायत करने से पहले वे किसी पुरुष अभिभावक की सहमति लेना जरुरी समझती हैं। अगर जरुरत पड़ी तो वही पुरुष अभिभावक उनके साथ थाने या कोर्ट तक जाता है। ऐसे में बहुतेरे मामले पुलिस और कोर्ट के पास जाने से पहले ही दम तोड़ देते हैं।

घरेलू हिंसा से निपटने के लिए केंद्र सरकार ने एक कानून बनाया है। 2005 में घरेलू हिंसा अधिनियम पारित किया गया और और 26 अक्टूबर 2006 से इसे लागू किया गया। लेकिन जानकारी के अभाव में महिलाएं और उनके संरक्षक इसका लाभ नहीं उठा पाते।


क्या है घरेलू हिंसा अधिनियम?


घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 की धारा 2 (g) एवं 3 के अनुसार शारीरिक दुर्व्यवहार अर्थात शारीरिक पीड़ा, अपहानि या जीवन या अंग या स्वास्थ्य को खतरा या लैगिंग दुर्व्यवहार अर्थात महिला की गरिमा का उल्लंघन, अपमान या तिरस्कार करना या अतिक्रमण करना या मौखिक और भावनात्मक दुर्व्यवहार अर्थात अपमान, उपहास, गाली देना या आर्थिक दुर्व्यवहार अर्थात आर्थिक या वित्तीय संसाधनों, जिसकी वह हकदार है, से वंचित करना, ये सभी घरेलू हिंसा कहलाते हैं।

मतलब कि ये जरुरी नहीं कि महिलाओं के साथ शारीरिक हिंसा ही घरेलू हिंसा अधिनियम की श्रेणी में आता है, बल्कि अपमान, तिरस्कार या दुर्व्यहार भी उसी श्रेणी में आता है। अक्सर शादी के बाद महिलाओं को दहेज के लिए किसी और मांग के लिए घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है। कभी पति, तो कभी सास-ससुर तो कभी दूर के रिश्तेदार द्वारा भी महिलाओं को प्रताड़ित करने की शिकायतें आम हैं। लेकिन बहुतेरे मामलों में शिकायतें घर में ही निपटा लिए जाते हैं। जब मामला नाक के ऊपर जाता है तभी पुलिस या कोर्ट कचहरी की शरण ली जाती है।

अधिनियम के आने के बाद शहरों में महिला डेस्क बनाए गए हैं। थानों में शिकायतें सुनने के बाद पुलिस जिले में बने महिला सेल के पास मामले को भेज देती है। उसके बाद पूरी जांच पड़ताल करने के बाद प्रकरण को न्यायालय भेजा जाता है।


महिलाओं के अधिकार-


घरेलू हिंसा से पीड़ित महिला को अपने ससुराल में पति के घर में रहने का हक है भले ही उसका उस घर में हक हो या नहीं। उसे यहां तक अधिकार है कि वो ससुराल में रहने के लिए अपने लिए अलग घर का दावा कर सकती है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक आदेश में कहा है कि पीड़ित महिला उसी वैकल्पिक आवास के लिए हकदार है जिसमें उसके पति का अधिकार हो। वो अपने ससुरालवालों की खुद की अर्जित संपति में वैकल्पिक आवास का हक नहीं जता सकती है।

पीड़ित महिला अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस अधिकारी, सेवा प्रदाता, आश्रय-गृह औऱ चिकित्सकीय सहायता की मांग कर सकती है। महिला भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के तहत भी वैवाहिक क्रूरता के खिलाफ मामला दर्ज करवा सकती है।

महिला की शिकायत पर गौर करने के बाद कोर्ट को अगर घटना सही प्रतीत होती है तो वो महिला के पक्ष में प्रोटेक्टशन ऑर्डर जारी कर सकती है और आरोपी को महिला के उस स्थल पर जाने से रोकती है जहां महिला रह रही हो या जहां अपना रोजी-रोजगार चला रही हो। इसके साथ ही कोर्ट ये भी सुनिश्चित करती है कि महिला को आवास की समस्या नहीं हो। उसे उसके आवास से हटाया नहीं जाए। इसके लिए आरोपियों को विशेष ताकीद की जाती है।

इसके साथ-साथ कोर्ट पीड़ित महिला को वित्तीय मदद का भी आदेश देती है। वित्तीय मदद न केवल महिला बल्कि उसके बच्चों को भी दी जाती है। साथ ही कोर्ट महिला के बच्चों की कस्टडी उसे देने का भी आदेश दे सकती है। कई बार इन मामलों में अगर कोर्ट को लगता है कि मध्यस्थता की गुंजाइश है तो उसकी भी पहल की जाती है और मामले मध्यस्थता के जरिए सुलझ जाते हैं। इसके लिए मजिस्ट्रेट मध्यस्थ नियुक्त करता है।


होने चाहिए कुछ संशोधन


अधिनियम महिलाओं के हित के लिए बनाया गया है इसमें कोई दो राय नहीं है लेकिन कहीं- कहीं कुछ ऐसी बातें हैं जिनका उपयोग बचाव पक्ष वाले कर लेते हैं और उन्हें रियायत मिल जाती है। जैसे-

1. न्याय के संबंध की बात है तो अधिनियम में प्रयास करने शब्द का उपयोग कर दिया गया है यही वजह है कि दो माह की जगह पेशी पर पेशी ब़ढ़ती जा रही हैं और कुछ किया नहीं जा सकता।

2. महिलाओं के संरक्षण का काननू भी पारित होना चाहिए।

3. इन प्रकरणों के निबटारे के लिए विशेष अदालतों का गठन हो।

 
 

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