????? ?? ????
यूपी में गन्ना किसान अपने गन्ने का वाजिब और समय से दाम पाने के लिए लगातार संघर्ष करते रहते हैं। यूपी में पिछले तीन साल से गन्ने का दाम नहीं बढ़ा है। जबकि महंगाई का ग्राफ तेजी से भाग रहा है। अब अगर तीन साल बाद सरकार आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए कुछ दाम बढ़ाती भी है तो किसानों के लिए कोई लाभ वाली बात नहीं होगी। कुल मिलाकर किसान जहां थे वहीं रहेंगे।
अन्य फसलों में लाभ और कम है इसलिए किसान या तो खेती छोड़ें या गन्ने का दाम बढ़ाने के लिए संघर्ष करते रहें। जाहिर है ये संघर्ष चलता ही रहेगा। नेता किसी भी दल का हो जब भी सार्वजनिक मंचों पर बोलना शुरू करता है तो सबसे पहले किसान और मजदूर उसे याद आते हैं मगर जब कुछ करने का अवसर आता है तो वे उद्योगपतियों के साथ नजर आते हैं। इसीलिए कहना गलत न होगा कि किसानों का संघर्ष कभी समाप्त होता नजर नहीं आता।
वेस्ट यूपी में क्यों नहीं छोड़ पाते किसान गन्ने की खेती
शुगर बाउल कहे जाने वाले वेस्ट यूपी के इलाके में गन्ने की खेती एक तरह की ' मीठी ' मजबूरी है। लाख मुश्किलें हों। लाख मिल मालिक शोषण करें किसान फिर भी अन्य फसलों को नहीं अपना सकते। किसान बताते हैं कि शोषण से आजिज आकर कई किसानों ने गन्ना छोड़कर धान की खेती की। नतीजा मौसम की मार से सब कुछ तहस-नहस हो गया। इस बदलाव की कीमत तमाम किसानों को जान देकर चुकानी पड़ी। गन्ने का पैसा तो देर सबेर मिल ही जाता है। बागपत के सतपाल सिंह बताते हैं कि यह क्षेत्र ऐसा है जहां जंगली सूअर, नील गाय, सेही जैसे तमाम जंगली जानवर आते ही रहते हैं जो धान और दलहन की फसलों को बर्बाद कर देते हैं। इतना ही नहीं धान की खेती में मजदूरी ज्यादा देनी होती है। कीड़ा लग जाता है वह अलग।
दूसरी फसलों के ठीक उल्टा गन्ने को हाथी के अलावा दूसरे जानवर नुकसान नहीं करते और हाथी इस क्षेत्र का रुख कम ही करते हैं। मौसम की मार भी गन्ने का ज्यादा नुकसान नहीं कर पाती। उखड़े गन्ने को दोबारा लगा भी सकते हैं। सबसे बड़ी बात इसमें लागत बहुत कम आती है। गन्ने को एक बार लगा दें तो कटाई के बाद अगले सीजन में वह फिर बिना रोपाई के उग आता है । इसका मतलब हुआ कि रोपाई एक बार और उत्पादन कम से कम दो बार । गन्ने का उत्पादन देख कर ही तमाम बड़े उद्योगपतियों की चीनी मिलें इसी क्षेत्र में लगी हैं और सब मुनाफे में हैं। किसान अगर कोल्हू या क्रशर पर भी गन्ना देते हैं तो भी उन्हें घाटा नहीं होता।
किसान बताते हैं निजी मिल मालिकों के दावों को गलत
शुगर मिल एसोसिएशन के महानिदेशक के बयान के ठीक विपरीत किसानों के नेता हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में कई बार अपने साक्ष्यों से निजी मिल मालिकों को निरुत्तर कर चुके हैं । किसान नेता सरदार वीएम सिंह ने बताया कि निजी मिल मालिक झूठ बोल रहे हैं इनके पास कैश की कोई कमी नहीं है और न तो किसी को कोई घाटा हो रहा है। उनकी इस बात का गन्ना किसान भी समर्थन करते हैं। किसान बताते हैं कि निजी मिल मालिक अपना लाभ सिर्फ चीनी की बिक्री से होने वाली आय में ही दिखाते हैं जबकि गन्ने का हर अंश मिल मालिकों को करोड़ों रुपये दे जाता है।
मैली तक मिलों को दे जाती है अच्छा लाभ
गन्ना किसान अनुज सहारण बताते हैं कि अधिकतर चीनी मिलों की अपनी डिस्टिलरी है। बिजली बनाई जाती है और अपने साल भर प्रयोग के बाद बेंची भी जाती है। खोई से गत्ते बनते हैं। यहां तक कि जो मैली निकलती है वह भी किसानों को खाद के रूप में बेंच दी जाती है। डिस्टिलरी से ही इतना लाभ होता है कि मिल मालिक कभी घाटे में रह ही नहीं सकते। सब ड्रामेबाजी है।
चीनी मिलों की मुश्किल
बुलंदशहर की सरकारी शुगर मिल के पूर्व जी.एम.और चीफ इंजीनियर देवेन्द्र कुमार मिश्र शुगर इंडस्ट्री की मुश्किलें और उनके दुष्चक्र में फंसे रहने की वजह पर रोशनी डालते हुए कहते हैं कि - हमारी मिलें कच्चे माल यानि गन्ने की और चीनी की कीमतें तय करने के मामले में पूरी तरह सरकार पर आश्रित हैं । गन्ने का खरीद मूल्य भी सरकार तय करती है और चीनी की कीमतें भी सरकार ही तय करती है । ऐसे में मिलों के भारी मुनाफा कमाने की बातें पूरी तरह से सही नहीं हैं ।
श्री मिश्र का कहना है कि निजी मिलें तो फिर भी पर्याप्त लाभ कमा लेती हैं लेकिन सरकारी चीनी मिलों की हालत तो हमेशा पतली ही बनी रहती हैं । सरकारी मिलें तो अक्सर वाकई घाटे में रहती हैं । गन्ने का गणित समझाते हुए वे कहते हैं कि दरअसल चीनी मिलों का कच्चा माल गन्ना होता है और उसकी कीमत सरकार तय करती है । लिहाजा मिलों को सस्ता कच्चा माल मिलने की संभावना पहले ही खत्म हो जाती है । इसके बाद जब चीनी उत्पादन हो जाता है तो उसका आधे से ज्यादा हिस्सा 'लेवी' में चला जाता है। अब बचे हुए तकरीबन 30 से 40 फीसदी उत्पादन को बाजार में सिर्फ तब ही बेंचा जा सकता है जब केंद्र सरकार के 'डॉयरेक्टोरेट ऑफ शुगर एंड वनस्पति' से रिलीज ऑर्डर मिले । रिलीज ऑर्डर पाने के लिए भी अक्सर मिलों को लालफीताशाही और भ्रष्टाचार की समस्या से हर बार दो-चार होना पड़ता है । खुले बाजार में बेंचने के लिए भी सरकार की और से दरें तय की जाती हैं लिहाजा यहां भी अनाप-शनाप मुनाफे की संभावना नहीं के बराबर हो जाती हैं ।
फिर भी होता है मुनाफा
निजी मिलें तो जोड़-तोड़ करके किसी तरह रिलीज ऑर्डर हासिल भी कर लेती हैं लेकिन सरकारी मिलें यहां भी फिसड़्डी ही साबित होती हैं और जिसके एवज में उन्हें सिर्फ घाटा ही उठाना पड़ता है । इन सब हकीकतों के बावजूद श्री देवेन्द्र कुमार मिश्र का मानना है कि निजी चीनी मिलें घाटे में नहीं रहती । वे अच्छा मुनाफा कमा लेती हैं । इतना ही नहीं अपने मुनाफे को बनाये रखने के लिए ही वे किसानों का भुगतान देर से और किश्तों में करते हैं और उस पर कोई ब्याज भी नहीं देते । इन्हीं हथकंड़ों से वे अपने मुनाफे को ऊंचे स्तर पर बनाये रखते हैं ।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की मिलों पर बकाया गन्ना किसानों का पैसा (अक्टूबर 2015 तक की स्थिति)
बिजनौर क्षेत्र -
चीनी मिल स्वामित्व बकाया (करोड़ में)
स्योहारा बिड़ला 94.55
बिजनौर चड्ढा 10.51
धामपुर डीएसएम 49.90
बुंदकी द्वारकेश 22.77
चांदपुर चड्ढा 21.97
बिलाई बजाज 40.52
बरकाब उत्तम 57.83
बहादरपुर द्वारकेश 17.92
बागपत क्षेत्र -
मलकपुर मोदी ग्रुप 211.73
मेरठ क्षेत्र -
मवाना 188
दौराला 46.63
किनौनी 64.32
नंगलामल 49.92
हापुड़ क्षेत्र -
सिंभावली 151.31
ब्रजनाथपुर 42.49
बुलंदशहर क्षेत्र -
अनूपशहर 1.56
अनामिका 1.81
साबितगढ़ 1.93
बुलंदशहर 5.97
सहारनपुर क्षेत्र -
देवबंद त्रिवेणी 60
शेरमऊ उत्तम 42
गांगनौली बजाज 5
सरसावा सहकारी 3
नानौता सहकारी 4
शामली क्षेत्र -
शामली शुगर मिल 72.71
ऊन शुगर मिल 56.91
थाना भवन 40.16
मुजफ्फरनगर क्षेत्र - बकाया (लाख में)
मंसूरपुर 5150.07
खतौली 7578.62
तितावी 16643.88
टिकौला 1839.59
भैंसाना 5667.98
खाईखेड़ी 3281.82
बिजनौर में भारतीय किसान यूनियन के प्रदेश सचिव और बिजनौर की उत्तम शुगर मिल से जुड़े राजेंद्र सिंह का मानना है कि साढ़े तीन सौ रुपये प्रति कुंतल से कम रेट अगर किसानों को मिलता है तो घाटा ही घाटा है। कई साल से 280 रुपये का रेट ही चल रहा है। एक रुपया नहीं बढ़ा। ऊपर से समय से पैसा ही नहीं मिलता हमें आज जरूरत है पैसा छह माह बाद मिलेगा। ऐसे में मजबूर होकर किसानों को उधार लेना होता है और बेवजह ब्याज देना पड़ता है। हमारे पैसे पर हमें कोई ब्याज ही नहीं मिलता। हर साल यही सोचते रह जाते हैं कि मूल पैसा मिल जाय तो ब्याज के लिए लड़े मगर उसकी नौबत भी नहीं आती। ऐसे में हमारा संघर्ष अंतहीन हो गया है ।