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लोथल का शानदार गोदी बाड़ा
 
मोहनजोदड़ो की तरह ही प्राविधिक सफलता का एक अन्य उदाहरण हमें लोथल से भी मिलता है जहां एक हड़प्पाकालीन गोदी बाड़ा यानि डॉक यार्ड पुरातत्ववेत्ताओं को खुदाई से प्राप्त हुआ है । लोथल वर्तमान में भारत के गुजरात राज्य में स्थित है । हड़प्पा काल में यह एक प्रमुख बंदरगाह नगर हुआ करता था । यहां से जो डॉक यार्ड या गोदी बाड़ा प्राप्त हुआ है वह 214/36 मीटर लंबा-चौड़ा है । ये गोदी बाड़ा भी पकी ईंटों से बना है । गोदी बाड़े में जहाजों के प्रवेश के लिए एक 12 मीटर ऊंचा  प्रवेश द्वार बनाया गया था तथा बाड़े में जल आपूर्ति के लिए एक नहर बनाई गई थी । गोदी बाड़े में अतिरिक्त जल की निकासी के लिए नालियां बनायी गईं थीं । ये गोदी बाड़ा भी हड़प्पा संस्कृति  के अभियान्त्रिकी ज्ञान का प्रमाण है ।                                                






हड़प्पा सभ्यता की सूझबूझ भरी टाउन प्लानिंग और सैनीटेशन सिस्टम

 हड़प्पा सभ्यता की दो सर्वप्रमुख विशेषताएं थीं - एक तो उसकी नगर नियोजन प्रणाली और दूसरी स्वच्छता व्यवस्था । सभ्यता के सभी नगर जाल प्रणाली या ग्रिड प्लान के आधार पर बसे थे अर्थात सभी मार्ग एक दूसरे को समकोण पर काटते थे तथा घर सड़कों के किनारे बसे थे । इस प्रकार की मार्ग व्यवस्था की खासियत यह होती है कि इसमें परिवहन संबंधी समस्याएं नहीं आने पातीं।


                            दूसरी विशेषता थी - दूषित जल निकासी के लिए नालियों की उत्तम व्यवस्था। इसके अंतर्गत प्रत्येक घर से निकलने वाली नाली एक मुख्य नाली में मिलती थी और सभी नालियां अंतत: शहर के बाहर बने एक सोख्ता गड्ढे अर्थात् सोक पिट में गिर जाती थीं । ये सभी नालियां मेनहोल से युक्त होती थीं औप ढकी हुई बनायी जाती थीं । इतने उच्च कोटि के वास्तु ज्ञान  की झलक हमें अन्य समकालीन सभ्यताओं में देखने को कम ही मिलती है ।

मौर्य शासनकाल की सिविल इंजीनियरिंग कामयाबियां

भारतीय सिविल इंजीनियरिंग के ज्ञान की एक लंबी छलांग हमें तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में तब देखने को मिलती है जब भारत पर अशोक महान का शासन था और मौर्य कलाकार अशोक महान की राजाज्ञाओं को पत्थर के स्तंभों पर खोदने में लगे थे । महान मौर्य सम्राट अशोक के स्तंभों की प्राप्ति पुरातत्ववेत्ताओं को लगभग पूरे भारत के विभिन्न स्थानों से हुई है । ये  स्तंभ चुनार की खानों से प्राप्त पत्थरों से बने हैं । प्रत्येक स्तंभ एक ही प्रस्तर खंड से बना है ।
 

                             
                                                    
स्तंभों के शीर्ष पर प्राय: किसी न किसी पशु की आकृति को भी साथ ही में बनाया जाता था । ये स्तंभ 35 से 50 फीट ऊंचे और लगभग 50 टन वजनी होते थे । इस आकार -प्रकार और वजन के प्रस्तर स्तंभों को भारत के दूर-दराज के क्षेत्रों तक ले जाना और वहां उन्हें मजबूती से गाड़ना अपने आप में एक चुनौतीपूर्ण काम था ।   
     

                                                           ये सभी स्तंभ एक प्रकार की चिकनी पालिश से पुते हुए हैं और आज भी उतने ही चमकदार हैं जितने शायद ये अपने निर्माण के समय रहे होंगे । इस रहस्यमय चमकदार पॉलिश का निर्माण कैसे होता था यह आज तक रहस्य ही है । जिन लोगों ने बनारस  म्यूजियम में रखे सारनाथ स्तंभ शीर्ष के 3 प्रस्तर सिंहों को देखा होगा वे इसकी चमकदार पॉलिश से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाये होंगे ।

मौर्य शासकों का दिव्य राजमहल

                    मौर्यों के प्राविधिक ज्ञान की कहानी सिर्फ इतनी ही नहीं है । मौर्यकालीन कई पुरावशेष तो अब नष्ट प्राय हो चुके हैं लेकिन उनके निर्माण की गुणवत्ता की प्रशंसा हमे कुछ
ऐतिहासिक स्रोतों से मिल जाती है । मौर्यों की राजधानी पाटिलीपुत्र में जो राजा का महल हुआ करता था वह लकड़ी का बना हुआ था और इस पर भी चमकदार पॉलिश की गई थी । इस राजप्रासाद की प्रशंसा करते हुए ईलियन ने कहा था कि -
                                                          " सूसा और एकबटना के राजप्रासाद भी भव्यता में पाटिलीपुत्र के भवन की बराबरी नहीं कर सकते  । "
                                                       
इसी राजप्रासाद की तारीफ चीन देश के यात्री फाहियान ने कुछ इस प्रकार की थी -
                                                    " इसे संसार के मनुष्य नहीं बना सकते ,बल्कि यह देवताओं द्वारा बनाया गया लगता है । "
       
मौर्य काल के लोकनिर्माण कार्य

मौर्य काल के अभियन्ताओं ने न सिर्फ राजकीय कार्यों के लिए ही अपना हुनर दिखाया बल्कि सार्वजनिक कार्यों के लिए भी वे मौर्य शासकों की प्रेरणा से आगे आये । ऐसा ही एक कार्य था , सुदर्शन नाम की एक कृत्रिम झील का निर्माण । ये झील गुजरात के जूनागढ़ के पास रैवतक और ऊर्जयत पर्वतों के जलस्रोतों के ऊपर कृत्रिम बांध बनाकर निर्मित की गयी थी । यह झील  मूलरूप से चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में बनी थी और अशोक के शासन काल में इससे सिंचाई एवं जलापूर्ति के लिए नालियां निकाली गयीं थीं । यह बात हमे जूनागढ़ अभिलेख से पता चलती है ।   

          
    



















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