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मोहनजोदड़ो नामक हडप्पाकालीन स्थल से पुरातत्ववेत्ताओं को एक कांस्य निर्मित नर्तकी की प्रतिमा प्राप्त हुई थी । ये प्रतिमा 12 सेंटीमीटर लंबी थी । इसके अलावा हमें हड़प्पाकालीन स्थलों से बहुत से सोने,चांदी व तांबे के आभूषण एवं अन्य उपयोगी वस्तुएं भी प्राप्त हुईं थीं । हमें एतिहासिक काल में चांदी,तांबे,सोने के सिक्के पुरावशेषों में प्राप्त हुए हैं जो कि न सिर्फ उन्नत धातुकर्म ज्ञान के बल्कि उच्चकोटि की कलात्मक उपलब्धियों के भी उदाहरण स्वरूप हैं । साहित्यिक साक्ष्य भी भारतीय धातुकर्म ज्ञान की प्राचीनता को सिद्ध करते हैं ।
                      अथर्वेद में "लोहायस " तथा "श्याम अयस" शब्द प्राप्त होते हैं जबकि वायसनेयी संहिता में लोहा तथा श्याम शब्द प्राप्त होते हैं जो कि लोहे और तांबे के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं । ये दोनो ग्रंथ उत्तर
वैदिक कालीन हैं जबकि लोहे के पुरातात्विक साक्ष्य तो इससे भी प्राचीन हैं । दक्षिण भारत की महापाषाण संस्कृति में लोहे का प्रचलन बहुत ज्यादा था । भारत के विभिन्न भागों से प्राप्त अनेक लोहे के औजार व हथियार निश्चित रूप से उत्तर वैदिक काल से भी पहले के हैं । ऐसे औजार और हथियार हमें अतरंजीखेड़ा,माहुरझारी,हस्तिनापुर तथा श्रावस्ती के अलावा कई अन्य स्थानों से मिले हैं । अतरंजीखेड़ा के लौह उपकरण तो 1025 ईसा पूर्व तक की प्राचीनता वाले हैं।      माहुरझारी से पायी गयी एक कुल्हाड़ी तो इस्पात की बनी हुई है । इसमें 6 फीसदी कार्बन की मात्रा है जिसके कारण इसे इस्पात की श्रेणी में रखा जाता है ।

इस्पात से निर्मित एक और कृति गुप्त काल की है । चन्द्रगुप्त द्वितीय  विक्रमादित्य का महरौली का स्तंभ शुद्द इस्पात का बना हुआ है । वर्तमान में यह स्तंभ कुतुबमीनार के पास स्थित है । एक हजार से भी अधिक वर्षों से निरंतर वर्षा,शीत और ग्रीष्म की मार झेलने के बावजूद यह स्तंभ बिना जंग खाये ज्यों का त्यों खड़ा हुआ है । ऐसे धातु स्तंभ और लौह उपकरण प्राचीन भारतीय धातु प्रौद्योगिकी के विलक्षण नमूने हैं । ये नमूने भारतीयों के उन्नत धातुकर्म ज्ञान के अति जीवित प्रमाण हैं । वर्षों से चली आ रही यह मान्यता कि भारत सहित संपूर्ण विश्व लोहे के ज्ञान के लिए एशिया माइनर की हित्ती सभ्यता का ऋणी है,अब अप्रासंगिक हो चुकी है । भारत से प्राप्त लौह अवशेषों ने इस मान्यता को अब बिल्कुल झुठला दिया है ।

प्राचीन भारतीयों का आयुध ज्ञान

धातुओं से न सिर्फ उपयोगी वस्तुएं ही बनायी गईं थीं बल्कि घातक हथियारों का भी निर्माण किया गया था । ऐसे ही कुछ घातक हथियारों का जिक्र हम ऐतिहासिक श्रोतों में भी पाते हैं । जैन धर्म के कुछ ग्रंथों से हमें पता चलता है कि राजा अजातशत्रु ने लिच्छिवियों के विरुद्ध युद्द में "रथमूसल" और "महाशिलाकंटक" नामक दो घातक हथियारों का प्रयोग किया था । रथमूसल एक प्रकार का आरी जैसा हथियार था जो कि रथ के पहियों की धुरी पर मजबूती से लगाया जाता था । रथ जैसे जैसे आगे बढ़ता था,रथमूसल भी धुरी के साथ-साथ घूमता हुआ शत्रु सेना को काटता हुआ चलता था ।
                                   महाशिलाकंटक दूसरे किस्म का हथियार था । यह भारी-भारी पत्थरों को शत्रु सेना पर फेंकता था जिससे विपक्षी सेना तितर-बितर हो जाती थी । इसे मिसाइल या तोप का आदिम रूप कहा जा सकता है । तलवारों के निर्माण में भी प्राचीन भारतीय शिल्पकारों का जवाब न था । अग्निपुराण के एक विवरण के अनुसार राष्ट्रकूट शासकों के राज्य में तथा सिंध में
उच्चकोटि की तलवारें बनायी जाती थीं । इन उत्कृष्ट तलवारों की विदेशों में बड़ी मांग रहती थी । 
             
धातु की प्राचीन विस्मयकारी मूर्तियां

धातु निर्मित हथियारों और औजारों के अलावा तांबे और कांसे की अनेकानेक मूर्तियां भी
बनाई गईं थीं । ये मूर्तियां मुख्यत: चोल , गुप्त एवं पाल शासकों के काल में सबसे ज्यादा बनाई गईं । इन मूर्तियों में संभवत: सबसे उत्कृष्ट बिहार के सुल्तानगंज से प्राप्त महात्मा बुद्ध की मूर्ति है । यह मूर्ति साढे सात फुट ऊंची है तथा वर्तमान समय में यह ग्रेट ब्रिटेन के बर्मिंघम संग्रहालय में है । पाल शासकों के काल की बनी मूर्तियां ज्यादातर कांसे की हैं । इन मूर्तियों की मांग न सिर्फ स्वदेश में बल्कि विदेशों तक में थी । पाल कालीन कांस्य प्रतिमाएं दक्षिण पूर्व एशिय़ा तथा नेपाल और तिब्बत को निर्यात भी की जाती थी । इन देशों में ये मूर्तियां आज भी सुरक्षित अवस्था में हैं ।                                                      चोल राज्य के कलाकारों द्वारा निर्मित कांस्य प्रतिमाओं से ज्यादा अच्छी प्रतिमाएं तो संभवत: तत्कालीन विश्व में कहीं और बनती ही नहीं थीं । चोल कलाकारों ने ही प्रसिद्ध नटराज शिव की कांस्य प्रतिमा की रचना की थी ।                       लगभग सभी कांस्य प्रतिमाएं cire perdue प्रणाली से बनाई गईं थीं । इस प्रणाली में सबसे पहले मोम की मूर्ति बनाई जाती थी जिसके ऊपर मिट्टी की परत चढ़ाई जाती थी फिर इसे गरम किया जाता था जिससे मोम पिघल जाती थी और मिट्टी का सांचा रह जाता था । मिट्टी के इस खोखले सांचे में पिघली हुई धातु भर दी जाती थी और धातु के ठंडा होने पर मिट्टी का सांचा तोड़कर धातु मूर्ति बाहर निकाल ली जाती  थी । सुल्तानगंज की बुद्ध प्रतिमा भी इसी तकनीक से बनी थी ।

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