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भारतीयों का गणितीय ज्ञान ज्योतिष के विकास एवं ज्योतिषीय गणनाओं में काफी मददगार साबित हुआ । यद्पि भारतीयों का ज्योतिष ज्ञान उतना ही प्राचीन है जितने वेदांग परन्तु भारतीयों ने ज्योतिष के क्षेत्र में कुछ-कुछ यूनानियों से भी सीखा था । वेदांगों में से एक ज्योतिष भी है तथा ज्योतिष पर लिखी गई सर्वाधिक प्राचीन पुस्तक " वेदांग ज्योतिष " है । इस पुस्तक की रचना "मगधमुनि" ने की थी । प्राचीन खगोलवेत्ताओं ने आर्यभट तथा वराहमिहिर का नाम काफी प्रसिद्ध है । ये आर्यभट ही थे जिन्होंने पांचवीं शताब्दी ईस्वी में ये बताया था कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती हुई सूर्य की परिक्रमा करती है । वराहमिहिर ने अपनी पुस्तक "पंचसिद्धान्तिका" में ज्योतिष शास्त्र के पांच सिद्धान्तों का वर्णन किया है । इनमें दो सिद्धान्तों के नाम हैं- रोमक सिद्धान्त और पौलिश सिद्धान्त ।



ये दो सिद्धान्त संभवत: यूनान से ग्रहण किये गये प्रतीत होते हैं । ये संभव हो सकता है कि भारतीयों ने ज्योतिष के क्षेत्र में यूनान से कुछ ग्रहण किया हो । भारतीयों ने ज्योतिषीय गणनाओं के परिणामों को शुद्ध से शुद्ध रूप में निकालने के लिए अपने गणितीय ज्ञान का प्रयोग किया और इस कारण उनकी भविष्यवाणियां यूनानवासियों से कहीं अधिक सही होती थीं । तत्कालीन यूनानवासियों का गणितीय ज्ञान भारतीयों से काफी पिछड़ा था इसलिए वे इतनी सही भविष्यवाणियां करने में समर्थ न हो सके । कालान्तर में अरबवासियों ने भारत से गणित का ज्ञान प्राप्त किया तथा अरबों के माध्यम से ये ज्ञान यूनान तक पहुंचा ।

भारतीय ज्योतिष के आचार्यों की महानता के चर्चे सीरिया और बगदाद तक थे । सीरिया के ज्योतिर्विद सिविरस सिवोट को भारतीय ज्योतिषियों की महानता का बोध था और बददाद के खलीफा ने तो भारतीय ज्योतिषियों को अपने दरबार में स्थान दिया था । भारतीय ज्योतिष की कई मूल अवधारणाओं को यूरोपियों ने भी ग्रहण किया जैसे ग्रहों के उच्च और नीच होने की अवधारणा , यूरोपियों ने भारत से ही ग्रहण की ।


हमारे पूर्वज थे महान खगोलशास्त्री




खगोलीय गणनाओं के लिए सत्रहवीं और अट्ठारहवीं शताब्दी में कई वेधशालाएं भी बनाई गई थीं । ऐसी वेधशालाएं जयपुर,जोधपुर, दिल्ली में आज भी स्थित हैं । ये सभी वेधशालाएं विशाल पैमाने पर बने ऐसे यंत्र हैं जो बड़ी शुद्धता से चंद्रमा की तिथियां,दिन का छोटा और बड़ा होना एवं दिन व रात का बराबर होना आदि घटनाओं को सरलता से दर्शा सकते हैं । इन वेधशालाओं के निर्माण से ये नहीं प्रतीत होता है कि ये किसी नवीन ज्ञान का मूर्त रूप हैं बल्कि ये किसी प्राचीन ज्ञान के विकास क्रम का एक सोपान मालूम होती है जो कि ये साबित करता है कि प्राचीन काल में भी ऐसी ही वेधशालाएं अवश्य बनाई गई होंगी ।

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