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श्रीमद्भगवद्गीता संसार भर में निष्काम कर्म की शिक्षा देने वाले और दर्शन के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित है लेकिन लखनऊ के दो लेखकों ने इस महान पुस्तक के अनुवाद की आड़ में उत्तर प्रदेश सरकार को ही चूना लगाने का कुत्सित कर्म कर डाला है ।

न्यूज फॉर ग्लोब को मिली पुख्ता जानकारी के मुताबिक लेखक युगल रघोत्तम शुक्ल और उनकी पूर्व पत्रकार बेटी शारदा शुक्ला ने उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की आंखों में धूल झोंककर और पुरुस्कार वितरण से जुड़ी गाइडलाइन्स की कमियों का ना-जायज लाभ उठाते  हुए उत्तर प्रदेश सरकार के लखनऊ स्थित हिंदी संस्थान से एक सम्मानित पुरुस्कार और उसके तहत मिलने वाली सरकारी धनराशि हड़प कर ली ।


मिली जानकारी के मुताबिक हिंदी संस्थान हर वर्ष अनुवाद की श्रेणी में भी एक पुरुस्कार देता है जिसे भगवानदास पुरुस्कार के नाम से जाना जाता है । ये पुरुस्कार गत वर्ष इन दो लेखकों रघोत्तम शुक्ल और उनकी कथित लेखक बेटी शारदा शुक्ला ने छलपूर्वक अपने नाम कर लिया ।दरअसल छलकपट में माहिर इन दोनो ने 'गीता सुधा संगम' के नाम से श्रीमद्भगवद्गीता का अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित करवाया और इसी पर उक्त पुरुस्कार हासिल कर लिया जबकि तथाकथित सह-लेखिका शारदा शुक्ला को अंग्रेजी और संस्कृत का आधारभूत ज्ञान तक नहीं है ।

इन शारदा शुक्ला का अंग्रेजी ज्ञान ऐसा है कि वे एक साधारण प्रार्थना पत्र तक अंग्रेजी में नहीं लिख सकतीं ,गीता जैसे महान दार्शनिक ग्रंथ के कठिन संस्कृत श्लोकों का अंग्रेजी में अनुवाद करना तो बहुत दूर की बात है । पुत्रीमोह ओर उसे जबरन बुद्धिजीवी के रूप में समाज में स्थापित करने तथा बेटी को आर्थिक लाभ दिलवाने के लिए उनके पिता रघोत्तम शुक्ल ने इस छल कपट को अंजाम दे दिया ।

गड़बड़ घोटाला और भी है


अब सुनिये इन रघोत्तम शुक्ला के द्वारा की गई डबल जालसाजी की आगे की दास्तान। तथ्य ये है कि जिस 'गीता सुधा संगम' पुस्तक पर इन दोनो ने सरकार से पुरुस्कार झटक लिया उसमें श्रीमद्भगवद्गीता का हिंदी कविता और अंग्रेजी में किया गया दो तरह का अनुवाद है अर्थात् पुस्तक में पहले गीता का मूल श्लोक संस्कृत में लिखा गया है जो कि महर्षि वेदव्यास जी की कृति है ,उसके नीचे हिंदी कविता में श्लोक का अनुवाद है तथा उसके साथ ही अंग्रेजी में किया गया अनुवाद है ।



अब डबल घोटाला ये किया गया कि हिंदी कविता में जो अनुवाद है वो अस्सी के दशक में पहले ही उत्तर प्रदेश सरकार से मिले अनुदान की मदद से प्रकाशित हो चुका है। यानि पहले भी गीता का हिंदी अनुवाद प्रकाशित करवाने के लिए रघोत्तम शुक्ला ने यूपी सरकार से धन पाया था। ये भी सुनने में आया है कि अस्सी के दशक में छपी उस पुस्तक को हिंदी संस्थान ने अपनी लाइब्रेरी के लिए खरीद कर लेखक को आर्थिक प्रोत्साहन भी दिया था ।  अब श्रीमद्भगवद्गीता को जो अनुवाद पहले ही छप चुका है वो फिर से कैसे पुरुस्कार का पात्र कैसे हो गया ?

हिंदी संस्थान के नियमों को धता बताने के लिए रची साजिश

गौरतलब है कि हिंदी संस्थान की गाइडलाइन के मुताबिक किसी भी पुस्तक को दोबारा पुरुस्कार के लिए तभी चुना जा सकता है जब उसका कम से कम 60 फीसदी हिस्सा नया लिखा गया हो । अब इन दोनो छलकपट में माहिर लेखकों ने बड़ी धूर्तता के साथ 'गीता सुधा संगम' में पहले तो महर्षि वेदव्यास लिखित गीता के श्लोक छाप दिये फिर पहले ही प्रकाशित व राजकीय सहायता पा चुकी पुस्तक का हिंदी अनुवाद उसमें डाल दिया । इस प्रकार पुस्तक को 66 प्रतिशत नया रंग रूप दे दिया । रही बात अंग्रेजी अनुवाद की, वो रघोत्तम शुक्ल का अकेले का लिखा है । पुत्रीमोह और उसे आर्थिक लाभ दिलाने के लिए शारदा शुक्ला का नाम तो जबरन डाल दिया गया । इतना ही नहीं पुस्तक प्रकाशित होने के बाद पूर्व पत्रकार रही इस शारदा शुक्ला ने हिंदी संस्थान में बैठे अफसरों से साठ-गांठ करने के लिए जुगाड़ बैठा लिया और सरकारी धनराशि और सम्मान हासिल कर लिया ।



हिंदी संस्थान की वेबसाइट

https://uphindisansthan.in/

 
हिंदी संस्थान और यूपी सरकार मौन क्यों ?


पूर्व पत्रकार रही शारदा शुक्ला की जड़ें हिंदी संस्थान में इतने गहरे फैली हैं कि कई शिकायती पत्र मिलने के बावजूद हिंदी संस्थान ने इस विषय में अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है । इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश सरकार के तेज-तर्रार मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ जी के सरकारी वेब पोर्टल पर भी कतिपय लोगों ने इस मामले की शिकायत की है किंतु अफसरों और कपटी लेखकों की मिलभगत के कारण अब तक इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं हो पा रही है । ऐसे में विद्वान व गुणी लेखकों में रोष की लहर है और वे हिंदी संस्थान की निष्पक्षता पर सवाल उठा रहे हैं ।      
 
फर्जीवाड़े में माहिर रही है शारदा शुक्ला

इससे पूर्व शारदा शुक्ला ने एक और पुस्तक हिंदी में लिखी और प्रकाशित करवाई थी । उस पुस्तक का एक हिस्सा भी आशुतोष नाम के एक लेखक के मौलिक लेखन का हिस्सा था । बात सिर्फ इतनी सी होती तो और बात थी लेकिन जिस लेखक का मौलिक लेख शारदा शुक्ला ने अपनी किताब में अपना बताकर प्रकाशित करवा लिया वो लेख लखनऊ के ज्ञानवाणी (आकाशवाणी का शैक्षणिक रेडियो चैनल ) से साल 2000 से 2002 के बीच बतौर रेडियो वार्ता प्रकाशित भी हुआ था और शारदा शुक्ला की ये पहली पुस्तक उसके कई वर्षों बाद छपी थी यानि कॉपीराइट कानून का खुला उल्लंघन करके इस कपटी लेखिका ने समाज में अपनी छवि बुद्धिजीवी के तौर पर बनाने का कुत्सित प्रयास तब भी किया था । 

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