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भारतीय सिविल इंजीनियरिंग की गाथा इतनी छोटी नहीं है कि मुट्ठी भर नमूनों से ही जिसका बयान किया जा सके । भारतीय वास्तुकला के अनेकानेक नमूने न सिर्फ भारत बल्कि दूर पश्चिम में बामियान तक फैले थे । आज भी अनेक भव्य भवन , जिनमें मंदिर प्रमुख हैं,प्राचीन भारत के वास्तु विज्ञान की गाथा गाने के लिए सुरक्षित अवस्था में खड़े हैं । ऐसे भव्य भवनो में तंजौर का वृहदीश्वर मंदिर ,उड़ीसा का लिंगराज मंदिर और कोणार्क का सूर्य मंदिर एवं खजुराहो के मंदिर समूहों की गणना की जा सकती है।

प्राचीन मंदिर: कला और इंजीनियरिंग के बेजोड़ नमूने


                 वृहदीश्वर मंदिर का शिखर लगभग 200 फिट ऊंचा है जबकि लिंगराज मंदिर अपनी बाहरी साज-सज्जा के लिए प्रसिद्ध है । एक ही पहाड़ी चट्टान को काटकर बनाये गए मंदिरों में ऐलौरा का कैलाश नाथ मंदिर तथा चेन्नई के पास बने महामल्लपुरम् के मंदिरों की गणना की जाती है । ऐलोरै का कैलासनाथ मंदिर राष्ट्रकूट राजा कृष्णा प्रथम का बनवाया हुआ है । यह मंदिर एक ही पहाड़ी चट्टान को 128 फीट तक गहरे काटकर बनाया गया था । कैलासनाथ मंदिर के सुंदर प्रवेश द्वार को चट्टान का मुख भाग काटकर बनाया गया है ।  एक ही पहाड़ी चट्टान को काटकर बनाये गये मंदिरों की विशेषता यह होती है कि ये आम भवनों के विपरीत शीर्ष से आधार की ओर चट्टान काटते हुए बनाये जाते हैं । महामल्लपुरम् के मंदिरों को भी इसी तकनीक से बनाया गया है ।                                                                              

                    पहाड़ी चट्टानों को काटकर मूर्तियों का भी निर्माण किया जाता था । ऐसी कुछ प्रमुख मूर्तियां मैसूर,एलीफैंटा तथा सुदूर बामियान तक में बनायी गईं थीं । एलीफैंटा द्वीप में स्थित सबसे उत्कृष्ट मूर्ति त्रिमूर्ति शिव की है । मैसूर में इसी तकनीक से जैन संत गोमटेश्वर की प्रतिमा तथा बामियान में महात्मा बुद्ध की प्रतिमा भी बनायी गई थी ।  इन सभी मंदिरों ,प्रतिमाओं में संतुलन और सामंजस्य का खूब ध्यान रखा गया था । इस सभी मूर्तियों और भवनों की देह-यष्टि बड़ी उत्तम है । पहाड़ी चट्टानों को काट कर बनायी गई मूर्तियों में न सिर्फ अनुपात का ही ध्यान रखा गया बल्कि इनमें वास्तुकारों ने अपने अति सरल उपकरणों से देव तु्ल्य गरिमा एवं प्रतिष्ठा के भाव भी उनमें आरोपित कर दिये ।
                    भारतीय वास्तुकला की इससे बड़ी सफलता और क्या हो सकती है कि इन प्राचीन भवनों को अभियान्त्रिकी के बजाय कला का अध्ययन विषय बना दिया । साधारण दृष्टा जब इन्हें देखता है तो वह इसके कला पक्ष से ही तृप्त हो जाता है । उसका ध्यान इन भवनों के अभियान्त्रिकी पक्ष पर जा ही नहीं पाता ।                                        
                            तकनीकि दृष्टि से संभवत:सबसे आश्चर्यजनक मंदिर सोमनाथ का था । यह मंदिर निर्माण प्रणाली एवं सज्जा की दृष्टि से तो बहुत विशिष्ट नहीं था बल्कि इसमें जो विशिष्टता थी वह इस मंदिर में स्थापित शिव लिंग की स्थापना प्रणाली में थी ।
                                   तेरहवीं शताब्दी के एक अभिलेख के अनुसार इस मंदिर में स्थापित शिव लिंग धरती पर स्थापित न होकर अधर में बिना किसी सहारे के लटका हुआ था । इसे इस भांति स्थापित करने के लिए मंदिर के मंडप की छत पर चुंबकीय टाइलों को लगाया गया था । इन चुंबकीय टाइलों के प्रभाव से लौह निर्मित शिवलिंग धरती से थोड़ा ऊपर उठ गया था परन्तु अपने वजन से धरती व छत के बीच में संतुलित और स्थिर हो गया था ।                                                                                                    
                       जब इस मंदिर पर आक्रमण हुआ तो आक्रान्ता एवं उसकी सेना के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा । हमलावरों के द्वारा जब तक चुंबकीय टाइलें नहीं हटाई गईं तब तक शिव-लिंग अधर में ही अटका रहा । आक्रान्ता सेना ने जैसे ही चुंबकीय टाइलें हटाईं वैसे ही सोमनाथ मंदिर का लौह निर्मित शिव लिंग धरती पर आ गया ।  सोमनाथ मंदिर का लौह निर्मित शिवलिंग प्राचीन भारत की कोई अकेली धातु निर्मित मूर्ति नहीं थी । प्राचीन भारतीयों को लोहे,तांबे,कांसे,टिन,सोना,चांदी तथा सीसे आदि धातुओं से कई प्रकार की उपयोगी वस्तुएं बनाना बहुत पहले से ही आता था । प्राचीन भारतीय विभिन्न अयस्कों से धातुओं को निकालना बखूबी जानते थे । विभिन्न धातुओं से निर्मित विविध प्रकार की वस्तुओं की पुरातात्विक खुदाई में प्राप्ति भारतीयों के विशद धातुकर्म ज्ञान के पुख्ता प्रमाण हैं ।       
(....शेष अगली कड़ी में.....)

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